Advertisement

📚🎯राजस्थान ख्यात साहित्य ( राजस्थानी भाषा) Rajastan GK

 ख्यात साहित्य ( राजस्थानी भाषा) 




राजस्थान के इतिहास के लिए 16वीं शताब्दी के बाद के इतिहास में ख्यातों का स्थान महत्त्वपूर्ण है। 'ख्यात' का सामान्य अर्थ होता है ख्याति प्रतिपादित करना।' अर्थात् ख्यात कथित साहित्य है। ख्यात विस्तृत इतिहास होता है जबकि 'वात' संक्षिप्त इतिहास होता है। यह वंशावली तथा प्रशस्ति लेखन का विस्तृत रूप है। इसके अंतर्गत वर्णन स्वतः समाविष्ट हो जाता है। अधिकांश ख्यात साहित्य गद्य में लिखा गया था। लेखक का लक्ष्य अपने आश्रयदाता की दैनिक डायरी लिखना होता था। ख्यात लेखन के लिए वंश परम्परागत मुसाहिब रखे जाते थे। इस प्रकार भिन्न-भिन्न राजवंशों के उत्थान एवं विकास का साहित्य तैयार हो गया। प्रतिभाशाली शासकों की ख्यातें भी लिखी गई, उदाहरण के लिए जोधपुर के


महाराजा अजीतसिंह की ख्यात रची गई।


राजस्थान में सोलहवीं शताब्दी के बाद जो बड़े पैमाने पर ख्यात साहित्य लिखा गया है, उसे अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से चार श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। (अ) इतिहासपरक ख्यात, (ब) वार्तापरक ख्यात, (स) व्यक्तिपरक ख्यात, (द) स्फुट ख्यात उपलब्ध ख्यात साहित्य में सबसे पुरानी ख्यात मुणहोत नैणसी के द्वारा लिखी हुई ख्यात है। मुंडीयार की ख्यात, जोधपुर ख्यात, मेवाड़ की ख्यातें, शाहपुरा की ख्यात, आमेर की ख्यात, जैसलमेर की ख्यात, बाँकीदास


की ख्यात और दयालदास की ख्यात आदि परवर्ती ख्यातें हैं।


राजस्थान का इतिहास लिखने वाले आरंभिक विद्वानों डॉ. ओझाजी, रेऊजी, जगदीशसिंह गहलोत और डॉ. रघुवीरसिंह सीतामऊ आदि ने अपनी कृतियों में ख्यात साहित्य का प्रयोग किया है। वर्तमान समय में राजस्थान के इतिहास पर जो शोध कार्य किया गया है उसमें भी ख्यात साहित्य का प्रयोग किया गया है। राजपूत राज्यों और राजाओं के संबंध में जो जानकारी फारसी के साधनों में नहीं मिलती, उसे ख्यातों से प्राप्त करके आधुनिक काल के शोधकर्ताओं ने इस साहित्य के ऐतिहासिक महत्व को बढ़ा दिया है। मारवाड़ के राव मालदेव के शेरशाह के साथ सम्बन्धों का वर्णन करते समय ख्यात ही प्रमुख साधन है। शेरशाह के साथ अब्बासखाँ सरवानी ने तो तारीख-ए-शेरशाही' में केवल इतना ही लिखा है कि शेरशाह पड़ाव से पहले बोरों में रेत भरकर सुरक्षा की अग्रिम व्यवस्था तैयार करवाता था। शेरशाह का मालदेव के सेनानायक के साथ डीडवाना में संघर्ष हुआ, शेरशाह ने परबतसर, श्रीनगर, अजमेर होते हुए वर्तमान मांगलियावास के पास मालदेव का जोधपुर जाने का मार्ग अवरुद्ध किया, शेरशाह और मालदेव के बीच समेल का युद्ध हुआ इसकी जानकारी हमें केवल ख्यातों से ही मिलती है। सुमेल की भौगोलिक स्थिति को आज तक तथाकथित विद्वान् और शोधकर्त्ता निर्धारण नहीं कर सके हैं। इस प्रकार भौगोलिक स्थिति की अपेक्षा करने वाले, ख्यातों के अंधे प्रशंसक, कभी-कभी भ्रम उत्पन्न कर देते हैं। डॉ. साधना रस्तोगी ने 'मारवाड़ का शौर्य युग' में गिरी को घूघरा घाटी और सुमेल को कुचील बताया है। डॉ. मांगीलाल व्यास ने भी शेरशाह के घूघरा घाटी तक पहुँचने का उल्लेख 'जोधपुर राज्य के इतिहास' में किया है।


इसी प्रकार मानसिंह और राणा प्रताप के बीच उदयसागर की पाल पर भेंट का वर्णन हमें 'नैणसी की ख्यात' और "आमेर की ख्यातों' से मिलता है। इस प्रकार के उदाहरणों को दुहराकर ख्यातों के ऐतिहासिक महत्व को प्रकट किया जा सकता है, लेकिन केवल ख्यातों का अनुसरण करने से भ्रम उत्पन्न होने का पूरा भय है। ख्यातों में वर्णित तिथियां भी सही नहीं हैं। घटनाओं का वर्णन भी क्रमानुसार नहीं किया गया है। व्यक्तियों और स्थानों के नाम भी अशुद्ध लिखे हुए मिलते हैं। नैणसी के अतिरिक्त ऐसी कोई भी ख्यात नहीं है जिसमें स्त्रोत का उल्लेख किया गया हो। अतएव शोधकर्त्ताओं को ख्यात साहित्य का उपयोग सतर्कतापूर्वक करना चाहिए। प्रमुख ख्यातों में लिपिबद्ध ऐतिहासिक सूचना का वर्णन इस प्रकार है


(अ) मुहणौत नैणसी री ख्यात : यह नैणसी द्वारा मारवाड़ी एवं डिंगल भाषा में लिखी गई ख्यात है। नैणसी


(1610-1670) जोधपुर महाराजा जसवंतसिंह प्रथम के दरवारी कवि एवं दीवान थे। मुंशी देवी प्रसाद ने नैणसी को 'राजपूताने का अबुल फजल' कहा है। 'नैणसी री ख्यात' में समस्त राजपूताने सहित जोधपुर के राठौड़ों का विस्तृत इतिहास लिखा गया है। इसमें राजस्थान के अलावा सिंध, गुजरात, मध्यभारत, महाराष्ट्र, हरियाणा इत्यादि तत्कालीन देशों का इतिहास है। इसमें राजपूतों की 36 शाखाओं का वर्णन किया है जो बड़े महत्त्व का है। नैणसी की दूसरी कृति A'मारवाड़ रा परगना री विगत' (गांवा री ख्यात) है जो ख्यात जितनी ही बड़ी है इसे 'सर्वसंग्रह' भी कहते हैं। इसमें तत्कालीन समय के सभी परगनों की आमदनी ठिकानों की रेख-चाकरी, भूमि की किस्म, फसलें, सिंचाई के साधनों, जातिवार घरों की संख्या के आकड़ों, आबादी आदि का वर्णन किया गया है। इसलिए इसे 'राजस्थान का गजेटियर' कहा जाता है। राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ने ख्यात की सभी प्रतियों को संग्रहित करके चार जिल्दों में ख्यात और दो 'जिलों में 'गांवा री ख्यात' को प्रकाशित करा दिया।


नैणसी की ख्यात राजस्थान के इतिहास का प्रमुख और महत्वपूर्ण साधन है। स्वर्गीय मुशी देवीप्रसाद ने इसको ऐतिहासिक उपयोगिता को अपनी लेखनी के द्वारा व्यापक रूप प्रदान किया था। उन्होंने नैणसी को “राजपुताने का अबुल फजल" कहकर पुकारा था। लेकिन फिर भी इस ख्यात में कतिपय कमियां हैं जिनकी जानकारी शोधकर्त्ताओं को होनी चाहिए।


पहली कमी यह है कि 1509 विक्रम संवत् से पूर्व की वंशावलियों को नैणसी ने भाटों की पोथियों से लिया था। इसलिए उनमें वर्णित नामों में अशुद्धियां पायी जाती हैं। दूसरी कमी यह है कि ख्यात लिखते समय जितने स्त्रोतों से जो जानकारी नैणसी को मिली उसने उसे यथावत लिपिबद्ध कर दिया अतएव ख्यात में असंगतियां एवं भ्रमोत्पादक तीसरी कमी यह है कि तारीखें सही नहीं हैं। वर्णन मिलते हैं।


चौथी कमी यह है कि वर्णन क्रमानुसार नहीं किया गया है। पांचवीं कमी यह है कि घटनाओं का वर्णन एक स्थान पर सम्पूर्ण नहीं मिलता है। लेखक को लिखते-लिखते जब जो बात याद आ गई उसका उल्लेख ख्यात में कर दिया गया। इन कमियों के उपरान्त भी ख्यात और विशेष रूप से गांवा री ख्यात का विशेष महत्व है।


तवारिखों की उसी सूचना को मान्यता दी जाती है जिसकी पुष्टि राजस्थानी साहित्य में हो जाती है। इस प्रकार विवादास्पद स्थिति को सुलझाने हेतु केवल एक ही साधन हैं कि हम यह मानकर चलें कि वास्तविक इतिहास लिखने के लिए यदि साहित्यकार का लक्ष्य सत्यता की खोज करना है, तो हमें राजस्थानी व फारसी के साहित्य को पूरक व 'परिपूरक साधनों के रूप में प्रयोग में लेना चाहिए।


नैणसी लेखक के रूप में : नैणसी प्रथम ख्यात लेखक था जिसने राजस्थान के गढ़ व गढ़ियों का वर्णन किया है। इसकी ख्यात में हमें सर्वप्रथम अंतर्राज्यों के संबंधों का विवरण मिलता है। नैणसी की ख्यात का अंतिम भाग सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जिसमें विभिन्न गाँवों व परगनों का वर्णन पढ़ने को मिलता है। अतएव हम कह सकते हैं कि एक लेखक के रूप में नैणसी वास्तव में राजस्थान का एक महत्वपूर्ण ख्यात लेखक था। नैणसी ने अपनी ख्यात में कई लड़ाइयों, कई वीर पुरुषों एवं उनकी जागीरों का वर्णन किया है। ख्यात में उदयपुर, हाड़ौती, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, जैसलमेर के भाटियों, कच्छवाहों, खेड़ के गुहिलों आदि का इतिहास मिलता है।


(ब) बांकीदास री ख्यात, जोधपुर : इसका लेखक बांकीदास था जो जोधपुर के महाराजा मानसिंह राठौड़ के दरबारी थे। बाँकीदास का सन् 1803 में नाथपंथी गुरु देवनाथ के साथ सम्पर्क हुआ। वे जोधपुर नरेश महाराजा मानसिंह के गुरु थे, अतएव गुरु की कृपा से ही बाँकीदास का महाराजा मानसिंह के साथ सम्पर्क हुआ। बाँकीदास की कवित्व शक्ति से प्रसन्न होकर महाराजा ने उन्हें लाखपसाव पुरस्कार दिया। कालान्तर में बाँकीदास महाराजा मानसिंह के भाषा गुरु भी बन गये। सन् 1833 में बाँकीदास का देहान्त हो गया। बांकीदास की ख्यात में जोधपुर के राठौड़ों के साथ अन्य वंशों का भी इतिहास दिया गया है। यह मारवाड़ी एवं डिंगल भाषा (राजस्थानी गद्य) में लिखी गई है। इसे 'जोधपुर राज्य की ख्यात' भी कहा जाता है। बांकीदास ने 'आयो अंगरेज मुलक रे ऊपर' शीर्षक गीत से राजपूत राजाओं को अंग्रेजों के खिलाफ


ललकारा। ख्यात दो प्रकार की होती है। नैणसी की ख्यात में अलग-अलग बातों का संग्रह है। दयालदास की ख्यात सलंग (लगातार) ख्यात है। नैणसी के समान बाँकीदास री ख्यात भी अलग-अलग बातों का राजस्थानी गद्य में लिपिबद्ध संग्रह है। बाँकीदास की बातें छोटे-छोटे फुटकर नोटों के रूप में हैं। लेखक को जब जो बात नोट करने के लिए मिली उसने नोट कर ली। उनमें कोई कम नहीं है। ख्यात में कुल मिलाकर दो हजार बातों का संग्रह है। प्रामाणितकर्त्ता की दृष्टि से वह राजस्थान की अन्य ख्यातों की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय है। डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने इसके ऐतिहासिक महत्व को इन शब्दों में स्वीकार किया था


..ग्रंथ क्या है, इतिहास का खजाना है। राजपूताना के तमाम राज्यों के इतिहास सम्बन्धी रत्न उसमें भरे पड़े हैं। मुसलमानों, जैनियों आदि के संबंध की भी बहुत सी बातें हैं। अनेक राज्यों और सरदारों के ठिकानों की वंशावलियां भी हैं। अनेक राजाओं के जन्म और मृत्यु के सम्वत्, मास, पक्ष, तिथि आदि दिये हुए हैं। " बाँकीदास रचित 26 कृतियाँ बाँकीदास ग्रंथावली के तीन भागों में प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त 10


अप्रकाशित रचनाएं भी हैं। बांकीदास की अमर ख्याति उनके द्वारा रचित निम्नलिखित गीत है "आयो अंगरेज मुलक रै ऊपर, आहंस लीधा खैंच उरा। "


इस गीत में कवि की राष्ट्रीय भावना का परिचय मिलता है। बाँकीदास के इतिहास प्रेम ने उसकी ख्यात के कारण उसे अमर बना दिया है।

(स) दयालदास री ख्यात (बीकानेर) : दयालदास सिढायच बीकानेर के महाराज रतनसिंह (1828-1851 ई.) के


दरबारी थे। यह मारवाड़ी (डिंगल) भाषा में लिखी गई एक विस्तृत ख्यात है जिसमें बीकानेर के राठौड़ों का प्रारम्भ से लेकर महाराजा सरदारसिंह तक का इतिहास दो भागों में लिखा है। इसमें बीकानेर के महाराजा रतनसिंह (1836 ई.) द्वारा अपने सामंतों को कन्या वध रोकने के लिए गया में प्रतिज्ञा करवाने का वर्णन है जो बड़ा महत्त्वपूर्ण है। महाराजा रतनसिंह (1828-1851) के आदेश से दयालराम सिढ़ायच ने बीका से लेकर सरदारसिंह के सिंहासनारोहरण तक की घटनाओं को क्रमबद्ध ख्यात के रूप में लिखा था। दयालदास ने ख्यात लिखने से पहले पुरानी वंशावलियों, पट्टे, बहियों और शाही फरमानों - खरीतों इत्यादि का मनन किया था। ख्यात में फारसी के फरमानों का नागरी में अनुवाद तथा अंग्रेजी फाइलों के भी अनुवाद दिये हैं।


(द) जोधपुर राज्य की ख्यात : इस ख्यात में राव सीहा से लेकर महाराजा मानसिंह की मृत्यु तक का हाल है। अतएव स्पष्ट है कि यह ख्यात जोधपुर नरेश मानसिंह के काल में लिखी गई थी। प्रारंभिक वर्णन कल्पित वातों, किवदंतियों पर आधारित है, अतएव राव जोधा से पहले के वृत्तान्त की तिथियाँ सही नहीं हैं, लेकिन बाद का इतिहास इस ख्यात के आधार पर पर ज्ञात हुआ है।


(य) मुण्डियार री ख्यात : मुण्डीयार वर्तमान नागौर जिले के शहर से करीब 10 मील दक्षिण में स्थित है। मण्डीयार को जागीर में चारणों को दिया गया था। राव सीहा के द्वारा मारवाड़ में राठौड़ राज्य की स्थापना से लेकर महाराजा जसवंतसिंह प्रथम की मृत्यु तक का वृतान्त इस ख्यात में है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह ख्यात जसवन्त सिंह के काल से लिखी गई होगी। प्रत्येक राजा के जन्म, राज्याभिषेक, मृत्यु की तारीखें ख्यात में दी हुई हैं। प्रत्येक राजा के कितनी रानियां थी और उनसे कौन-कौनसी संतानें उत्पन्न हुई इसका उल्लेख भी ख्यात में मिलता है। यह जानकारी मिलती है कि अकबर के पुत्र सलीम की मां जोधाबाई मोटाराजा उदयसिंह की दत्तक बहिन थी, जिनकी


माता मालदेव की दासी थी। इस प्रकार मुण्डीयार की ख्यात ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। हाल ही में ख्यात की उपलब्ध प्रति को डॉ. रघुवीर सिंह सीतामऊ ने नटनागर संस्थान के लिए खरीद लिया है। 

(र) कवि राजा की ख्यात : इसमें जोधपुर के राठौड शासकों का वृतान्त है जो महाराजा जसवन्तसिंह प्रथम के शासन काल की घटनाओं पर भी प्रकाश डालता है। इसके अतिरिक्त राव जोधा, रायमल, सूरसिंह के मंत्री भाटी गोबिन्ददास के उपाख्यान भी शामिल हैं। इस प्रकार मारवाड़ के राठौड़ों के इतिहास की जानकारी के लिए यह बड़ा। उपयोगी साधन है।

Post a Comment

0 Comments