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मुद्राशास्त्र (Coins) Rajastan Gk Part1

मुद्राशास्त्र (Coins)




सिक्कों के अध्ययन को 'न्यूमसमेटिक' (मुद्राशास्त्र) कहते हैं। भारत में आरंभिक सिक्के आहत मुद्रा (पंचमावर्ड क्वाइस) हैं जो लेख रहित हैं तथा ये पांचवी सदी ई.पू. के हैं। उप्पा मारकर बनाये जाने के कारण ये आहत मुद्रा कहलाई। सर्वप्रथम (1835 ई. में) जेम्स प्रिंसेप ने इनका नाम आहत सिक्के दिया। इन पर प्राकृतिक प्रतीक चिह्न तथा देवी-देवताओं के चित्र थे। ये सोने, चांदी तथा तांबे के होते थे। भारत में सर्वप्रथम लेखयुक्त सोने के सिक्के इण्डी ग्रीक (भारतीय-यवन) ऑफ दि हिन्दू स्टेट्स ऑफ राजपूताना' नामक पुस्तक लिखी, जो आज भी अद्वितीय मानी जाती है।


शासकों ने जारी किए। भारत में चांदी के सिक्के सर्वप्रथम शक शासकों ने चलाए तथा सोसे व पोटीन के सिक्के सातवाहन शासकों ने चलाए। तत्कालीन राजपूताना की रियासतों के सिक्कों के विषय पर केब ने 1893 ई. में 'द करेंसीज


रैढ़ (टोंक) की खुदाई से वहाँ 3075 चाँदी के पंचमार्क सिक्के मिले हैं। ये सिक्के भारत के प्राचीनतम् सिक्के हैं, जो एक ही स्थान से मिले सिक्कों की सबसे बड़ी संख्या है। इन सिक्कों को 'धरण' या 'पण' कहा जाता था। ये सिक्के मौर्य काल के हैं। इन सिक्कों का वजन 57 ग्रेन है। इन सिक्कों का समय छठी सदी ई. पूर्व से द्वितीय सदी ई. पूर्व का है। इन सिक्कों में ताँबें की मुद्राओं को 'गण मुद्राएँ' कहा गया है। जिन्हें मालवा, इण्डोसंसनियन, सेनापति आदि वर्गो में रखा गया है। गुरारा (सीकर) से लगभग 2744 आहत मुद्राएं मिली हैं। आहड़ से 6 तांबे की मुद्राएं एवं सोले मिली हैं। यहाँ से हिन्द-यवन (इण्डोग्रीक) मुद्राएं भी मिली हैं, जिनमें अपोलो, महाराज तर्स, विरहम विस, पालितस अंकित है।


विभिन्न गणों के सिक्के : मालवगण के सिक्के मालवाना जय रैड़ व पूर्वी राजस्थान से मिले हैं। इन पर कहीं 'मालवानां जय' अथवा मालव सेनापतियों के नाम जैसे माप्य, मजुप, मापेजय, भगजश अंकित रहता है। अग्रभाग में कई सिक्कों पर बोधिवृक्ष और पृष्ठ भाग में सूर्य, सिंह, नन्दी, राजा का मस्तक अथवा सूर्य का चिह्न भी अंकित रहता है। राजन्य जनपदस्य (खरोष्ठी में) पूर्वी राजस्थान तथा यौधेयाना बहुधान (ब्राह्मी में) उत्तर पश्चिमी राजस्थान से मिले हैं। नगर या कर्कोट नगर, जो उणियारा ठिकाने के क्षेत्र में जयपुर के निकट है; अपनी प्राचीनता के लिए बड़ा प्रसिद्ध है। कार्लाइल को यहां से छः हजार तांबे के सिक्के उपलब्ध हुए। नगर में मालवगण की टकसाल रही होगी। ये सिक्के संसार में प्राप्त सिक्कों में सबसे हल्के व छोटे आकार के हैं जिन पर दूसरी सदी ईसा पूर्व से चौथी सदी ईसा की ब्राह्मी लिपि में कोई 40 मालव सरदारों के नाम अंकित हैं।


रंगमहल (हनुमानगढ़) से 105 सिक्के मिले हैं जिनमें आहत मुद्राएं एवं कुषाणकालीन मुद्राएं हैं। कुषाण कालीन सिक्कों को 'पुरण्डा' कहा गया है। यहाँ से 'प्रथम कृषाण कनिष्क' का भी सिक्का मिला है। इसी तरह हविष्क, वाजिष्क, कनिष्क तृतीय एवं मुरण्डा की मुद्राएं अपने-अपने विविध चिह्नों सहित पाई गई हैं। बैराठ सभ्यता (जयपु भी अनेक मुद्राएं मिली हैं जिनमें से 84 मुद्राएं पंचमार्क तथा 28 मुद्राएँ इण्डो-ग्रीक शासकों की हैं। इन इण्डो ग्रीक मुद्राओं में 16 मुद्राएं प्रसिद्ध 'यूनानी शासक मिनेण्डर की हैं। सांभर (जयपुर) से लगभग 200 मुद्राएं प्राप्त हुई हैं जिनमें पंचमार्क तथा इण्डो सेसेनियन मुद्राएं हैं। यहाँ से इण्डो-ग्रीक व यौधेय गणराज्य की भी मुद्रा मिली है।

गुप्तकालीन सिक्के : राजस्थान में बुन्दावली का टीया (जयपुर), बयाना (भरतपुर), ग्राम-मोरोली (जयपुर), नलियासर (सांभर), रैढ़ (टोंक), अहेड़ा (अजमेर) तथा सायला (सुखपुरा), देवली (टोंक) से गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएं मिली हैं। 1948 ई. में बयाना (भरतपुर) से गुप्त शासकों की सर्वाधिक 'स्वर्ण' मुद्राएं मिली हैं जिनकी संख्या लगभग 2000 (1921) हैं। गोपीनाथ शर्मा के अनुसार इन सिक्कों की संख्या 1800 है। जिनमें चन्द्रगुप्त प्रथम के 10, समुद्रगुप्त के 173, काचगुप्त के 15, चन्द्रगुप्त द्वितीय के 961, कुमारगुप्त प्रथम के 623 तथा स्कन्दगुप्त का 1 सिक्का एवं 5 खडित सिक्के मिले हैं। इनमें सर्वाधिक सिक्के चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के हैं। अनुसग्राम सायला मिली 13 स्वर्ण मुद्राएं समुद्रगुप्त (350 से 375 ई.) की हैं। ये सिक्के ध्वज शैली के हैं। इनके अग्रभाग पर समुद्रगुप्त बायें हाथ में ध्वज लिए खड़ा है। राजा के बायें हाथ के नीचे लम्बवत् 'समुद्र' अथवा 'समुद्रगुप्त' ब्राह्मी लिपि में खुदा हुआ है। सिक्के के अग्रभाग पर ही 'समर शतवितत विजयो जित-रिपुरजितों दिवं जयति' 

विजयी राजा जिसने सैंकड़ों युद्धों में सफलता प्राप्त की और शत्रु को पराजित किया, स्वर्ग श्री प्राप्त करता है) ब्राह्मी लिपि में अंकित है। इनके पृष्ठ भाग पर सिंहासनासीन लक्ष्मी का चित्र हैं। इसी प्रकार की 'ध्वज शैली' के सिक्के यहाँ से काचगुप्त के भी मिले हैं।


चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के 'छत्रशैली' के स्वर्ण सिक्कों के अग्रभाग में आहुति देता हुआ खड़ा है। उसके बायें हाथ में तलवार की मूंठ है। राजा के पीछे एक बौना सेवक राजा के सिर पर छत्र लिए हुए खड़ा है। विक्रमादित्य के यहाँ से 'धनुर्धर शैली' प्रकार के भी सिक्के मिले हैं। इन सिक्कों से यह प्रमाणित होता है कि टॉक क्षेत्र के आस-पास का क्षेत्र भी गुप्त साम्राज्य का एक अविभाज्य अंग रहा है।


गुर्जर प्रतिहारों के सिक्के राजस्थान के शासकों ने विविध प्रकार के सिक्के चलाए। ये सिक्के सेसेनियन शैली से प्रभावित है। इनमें सोने तांबे व सीसे के सिक्के प्रचलित हुए। पारूथ द्रमों का प्रचलन मालवा के परमारों ने किया। विशाल प्रिय द्रमों का प्रचलन चालुक्यों के समय रहा। प्रतिहारों के 'आदिवराह', 'वराहनाम' वाले द्रम और देवी की मूर्ति वाले, वृषभ, मत्स्य और अश्वारोही अंकन वाले अनेक सिक्के मिले हैं। कुछ सिक्कों पर श्रीमदादिवराह नागरी का लेख तथा नरवराहा की मूर्ति अंकित है। इनके अलावा बरमल, द्रमार्थ, द्रमात्रिमाग तथा पंचीयक द्रम का उल्लेख भी मिलता है। ऐसे सिक्कों का 'आदि वराह' शैली का नाम दिया गया है। मारवाड़ में अनेक तांबे के सिक्के भी मिलते हैं. जिनका प्रचलन गुर्जर प्रतिहारों के द्वारा किया गया था। इन पर राजा के अर्द्ध-शरीर का चिह्न तथा यज्ञकुण्ड बना रहता है। परन्तु ये चिह्न गधे के मुँह जैसा दिखाई देता है। ये सिक्के 11वीं तथा 12वीं सदी तक प्रचलित रहे परन्तु पीछे से इनको तौल के रूप में काम में लिया जाने लगा।


एक अन्य संज्ञा के सिक्के जिन्हें आदि वराह द्रम्म' भी कहा गया है: राजस्थान में पाये गये हैं। इनके प्रचलन का श्रेय मिहिरभोज व विनायकपाल देव को है, जो कन्नौज के सम्राट थे। चौहानों के सिक्के चौहानों के कुछ सिक्कों पर वृषभ एवं अश्वारोही अंकित है। चौहानों के सिक्कों में द्रम्म, विंशोपक, रूपक, दीनार आदि प्रसिद्ध रहे हैं। अजयदेव चौहान की रानी सोमलेखा द्वारा चाँदी की मुद्रा तथा सोमेश्वर द्वारा वृषभ शैली तथा अश्वारोही शैली के सिक्के चलाए गए। कभी-कभी सिक्कों के द्वारा महत्वपूर्ण जानकारी भी मिलती हैं। एडवर्ड थॉमर्स ने 'Chronicles of the Patlhan Kings of Delhj' नामक पुस्तक के पृष्ठ 19 में 1192 ई. के सिक्के का चित्र दिया है जिस पर एक तरफ देवनागरी में मुहम्मद बिन साम और दूसरी तरफ पृथ्वीराज का नाम अंकित है। इस्लाम मतानुयायी होते हुए भी उसने नन्दी सिक्कों पर अंकित करवाया। इन अंकनों अतिरिक्त पृष्ठ भाग पर देवनागरी में हम्मीर शब्द भी अंकित करवाया गया। इन सिक्कों के पट की ओर अरबी में 'अस्सुल्तान-अल-आजम-मुईनुद्दीन-वा-दीन-अबूमुजफ्फर अंकित रहता था। इस सिक्के के प्राप्त होने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि तराइन के द्वितीय युद्ध में पराजय के बाद पृथ्वीराज को गजनी नहीं ले जाया गया था जैसा कि चन्दबरदाई में पृथ्वीराज रासो में लिखा है। अपितु उसे अजमेर लाया गया और मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज को उसका राज्य अधीनता स्वीकार कर लेने की शर्त के साथ उसे लौटा दिया होगा। इस प्रकार सिक्कों के द्वारा पूरक ऐतिहासिक जानकारी भी प्राप्त होती है।


गधिया सिक्के: इंडो-सासा सिक्कों की भारतीयों ने गधिया नाम से पहचान की है। पी. एल. गुप्त गधिया नाम समीकरण 'गद्याणक' लेख के साथ करते हैं। इंडो-सासानी 'गधिया' सिक्के रजत और ताम्र दोनों धातुओं के बने का हैं।

आरम्भिक मध्यकालीन सिक्कों में 'गधिया' सिक्कों का एक स्वतंत्र स्थान है। इन्हें गधिया इसलिए कहा गया क्योंकि इन पर अंकित मूर्ति गधे के मुंह की भांति दिखाई देती है। वास्तविकता में यह अंकन गधे का नहीं है। उस समय चलने वाली प्रतिहार, क्षत्रप आदि मुद्राओं को पीछे से पतला कर दिया गया जिससे उस पर वृषभ, वराह, देवी आदि का अंकन स्पष्ट न होने के कारण इन्हें गंधिया मुद्रा से संबोधित किया जाने लगा। नरहर रैणी, सिरोही, त्रिभुवनगिरि की मुद्राएं जिनका उल्लेख फेरू ने किया है गधिया शैली की है। राजस्थान में ऐसी मुद्राओं का प्रयोग पीछे से तौल के लिए किया जाने लगा। फदिया सिक्के : चौहानों के ह्रास काल से लेकर 1540 ई. तक चलने वाली राजस्थान की स्वतंत्र मुद्रा शैली 'फदिवा' नाम से जानी गई।

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