ताम्र पत्र (Copper Plates)
ताम्र पत्र भूमि दान से जुड़े हुए हैं। जब किसी शासक द्वारा अपने सामन्त /अधिकारी /ब्राह्मण/भिक्षु आदिको भूमिदान दिया जाता था तो सनद के रूप में उसका उल्लेख ताम्रपत्र में दिया जाता था। इसमें अनुदान पाने वाले का नाम, अनुदान देने का कारण भूमि का विवरण समय दाता का नाम, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक विश्वासों की जानकारी, राजा का वंशक्रम, भूमि मापन इकाइयां, भूमि की किस्म, फसलों का विवरण आदि की तत्कालीन समय की जानकारी मिल जाती है। भारत में सर्वप्रथम सातवाहन शासकों ने ब्राह्मणों/बौद्ध भिक्षुओं की भूमिदान देने की प्रथा प्रारम्भ की।
राजपूताना के शासकों ने इस संदर्भ में अनेक दानपत्र (ताम्रपत्र) जारी किए। ताम्रपत्रों में पहले संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया परन्तु बाद में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया जाने लगा। इस प्रकार की भूमि सभी करों से मुक्त होती थी। कालान्तर में इसी प्रकार के अनुदानों ने सामन्तवाद के विकास में योगदान दिया। इससे केन्द्रीय नियंत्रण शिथिल हो गया। प्रायः ये ताम्र पत्र लगभग 8" x 6" या 12" x 8" आदि लम्बाई चौड़ाई के होते थे, जिन पर पहले काली स्याही से प्रमाणित लेखक, जो एक विशेष अधिकारी होता था; उस पर इबारत लिख देता था और फिर उसको दस्तकार द्वारा उस पर उत्कीर्ण करा लिया जाता था। ये ताम्र-पत्र संस्कृत एवं स्थानीय भाषा में होते थे। परन्तु ज्यों-ज्यों स्थानीय भाषा का प्रयोग बढ़ता गया, महाजनी लिपि का प्रयोग होने लगा। 'भूमि की नाप में 'बीघा' तथा 'हल' शब्दों का प्रयोग होता है जो छोटी तथा बड़ी नाप होती थी। एक हल में 50 बीघा का प्रमाण होता था और बीघा साधारणतः 25 से 40 बाँस तक आँका जाता था। भूमि की किस्मों में पीवल, मगरो, पड़त, गलत-हास, चरणोत, राखंड, वीडो, कांकड, तलाई, गोरमो आदि शब्द प्रयुक्त होते थे। फसलों को सीयालू एवं ऊनालू और फिर रबी व खरीफ में बांटा जाता था।राजस्थान के कुछ प्रमुख ताम्र पत्र निम्नलिखित हैं:
धूलेव का दान-पत्र (679 ई.) : इसमें वर्णित है कि किष्किन्धा (कल्याणपुर) के महाराज भेटी ने अपने महामात्र आदि अधिकारियों को आज्ञा देकर अवगत कराया कि उसने महाराज बप्पदत्ति के श्रेयार्थ तथा धर्मार्थ उब्बरक नामक गांव को भट्टिनाग नामक ब्राह्मण को अनुदान के रूप में दिया। इसका समय 23वां वर्ष अर्थात् हर्ष संवत् है। इसमें दिये गये संवत् को 'अश्वाभुज संवत्सर' कहा गया है।
मथनदेव का ताम्र-पत्र (959 ई.) : यह ताम्र पत्र मथनदेव का है जिसका समय सं. 1016 का है। इसमें समस्त राजपुरुष एवं गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के समक्ष देवालय के निमित्त भूमिदान की व्यवस्था अंकित है। . बौच गुर्जर ताम्रपत्र (978 ई.) : इसमें गुर्जर कबीला का सप्तसैंधव भारत से गंगा कावेरी तक के अभियान का वर्णन है। इसी ताम्रपत्र के आधार पर कनिंघम ने राजपूतों को कुषाणों यू-ए-ची जाति का माना है। [Patwari 2016]
आहड़ ताम्रपत्र (1206 ई.) यह ताम्रपत्र गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव (द्वितीय, भोलाभीम) का (आषाढ़ादि) 1263 श्रावण शुक्ला है। इसमें गुजरात के मूलराज से लेकर भीमदेव द्वितीय तक के सोलंकी राजाओं की वंशावली दी गई है। इसके पश्चात् इसमें लिखा है कि 'परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, अभिनव सिद्धराज श्री भीमदेव ने अपने अधीन के मैदपाट (मेवाड़) मंडल (जिले) के आहाड में एक अरहठ, उससे संबंध रखने वाली भूमि तथा कडवा के अधिकार वाला क्षेत्र एवं उसके निकट का मकान नौलोगांव के रहने वाले कृष्णामित्र गोत्र के रायकवाल जाति के ब्राह्मण वॉड के पुत्र रविदेव को दान दिया।
खेरादा ताम्र-पत्र (1437 ई.) यह ताम्र-पत्र महाराणा कुंभा के समय का है। इसमें शंभू को 400 टका के दान का भी उल्लेख है जो उस समय की प्रचलित मुद्रा थी। इसमें एकलिंगजी में राणा कुंभा द्वारा प्रायश्चित करने, दान दिये गए, उस समय की प्रचलित मुद्रा, धार्मिक स्थिति की जानकारी मिलती है।
पारसौली का ताम्रपत्र (1473 ई.) : यह ताम्रपत्र महाराणा रायमल के समय का है। इस ताम्र पत्र में की किस्मों पर प्रकाश पड़ता है जो पीवल, गोरमी, माल, मगरा आदि नामों से जानी जाती थी। इस भूमि को समस्त लागों से भी मुक्त कर दिया गया था जो उस समय प्रचलित था।
बीकली ताम्र-पत्र (1483 ई.) : इससे किसानों से वसूल की जाने वाली 'विविध लाग-बागों' का पता चलता है। इसमें पटेल, सुधार एवं ब्राह्मणों द्वारा खेती किए जाने का वर्णन है।
पुर का ताम्र-पत्र (1535 ई.) : यह ताम्र-पत्र महाराणा श्री विक्रमादित्य के समय का है। इसमें हाड़ी रानी कमेती (कमवती) द्वारा जौहर में प्रवेश करते समय दिए गए भूमि अनुदान की जानकारी मिलती है। इस ताम्रपत्र से जौहर की प्रथा पर प्रकाश पड़ता है तथा चितौड़ के द्वितीय शाके का ठीक समय निर्धारित होता है।
ढोल का ताम्रपत्र (1574 ई.) यह ताम्रपत्र महाराणा प्रताप के समय का है जबकि उसने ढोल नामक गांव में सैनिक चौकों का प्रबंध किया था और उसी के प्रबंधक जोशी युनो का ढोल में भूमि का अनुदान दिया था। हल्दीघाटी के युद्ध के पूर्व किये गये प्रबंध का यह एक महत्त्वपूर्ण पक्ष था जिस पर उक्त महाराणा ने पूरा ध्यान दिया।
गांव पीपली (मेवाड़) का ताम्रपत्र (1576 ई.) : यह ताम्रपत्र महाराणा प्रतापसिंह के समय का है। इससे स्पष्ट है। कि हल्दीघाटी के युद्ध के बाद केन्द्रीय मेवाड़ के क्षेत्र में प्रजा का पुनः बसाने का काम महाराणा ने आरम्भ कर दिया था। जिन्हें युद्ध के समय में हानि उठानी पड़ी थी, उनकी सामयिक सहायता की गई थी। इस समय भाभा प्रधान के कार्य को करने लगा था और रामा भी राज्य के किसी कार्यभार को उठाये हुआ था।
बेडवास गांव का दानपत्र (1643 ई.) : यह दानपत्र समरसिंह (बांसवाड़ा) के काल का है। एक हल भूमि दान करने का उल्लेख है। ठीकरा गांव का ताम्रपत्र (1464 ई.) : गाँव के लिए यहां 'मांजा' शब्द का प्रयोग किया गया है।
डीगरोल गांव का ताम्रपत्र (1648 ई.) : यह ताम्रपत्र महाराणा जगतसिंह के काल का है जिसमें गढ़वी मोहनदास को डोरोलगांव, जो परगना आगरिया में था, पुण्यार्थ दिया गया था। उक्त महाराणा प्रतिवर्ष एक चांदी की तुला दान करता था। वि.सं. 1704 से तो उसने प्रतिवर्ष स्वर्ण की तुला दान करने और भूमिदान करने की भी व्यवस्था की थी। इस काल तक मेवाड़ में कई परगने बना दिये गये थे जिनमें अगरिया भी एक था।
कौटखेडी (प्रतापगढ़) का ताम्रपत्र (1650 ई.) : यह दानपत्र कीटखेडी गांव के भट्ट विश्वनाथ को दान देने के संबंध में है। इसे राजमाता चौहान द्वारा बनवाये गये गोवर्धननाथजी के मंदिर की प्रतिष्ठा के समय दिया गया था। इसकी भाषा स्थानीय है परन्तु अंत में दो श्लोक दिये गये हैं जिनमें विश्वनाथ को 'दीक्षागुरु' कहा गया है। रंगीली ग्राम (मेवाड़) का ताम्रपत्र (1656 ई.) : यह ताम्रपत्र महाराणा राजसिंह के समय का है जबकि उसने गंधर्व मोहन को रंगीला नाम का गांव उदक किया। इसके साथ गांव में लगने वाली खड़, लाकड और टका की लागत को भी छोड़ा गया।
कड़ियावद का ताम्रपत्र (1663 ई.) : कडियावद प्रतापगढ़ इसमें बाटीराम को 'नेग' वसूल कर देने की अनुज्ञा रावत हरिसिंहजी के द्वारा दी गई है जिसमें कई राज्यों के सरदारों ने भी स्वीकार किया है। 'नेग' वसूल करने का अधिकार चारणों को सूरजमल के समय से था इसकी पुष्टि ताम्रपत्र से होती है।
पारणपुर दानपत्र (1676 ई.) : यह ताम्रपत्र "महाराजा श्री रावत प्रतापसिंह" के समय का है। इसमें उस समय के पठित वर्ग तथा शासक वर्ग के नामों एवं धार्मिक उद्यापन करने की परम्परा का बोध होता है। स्थानीय भाषा के अध्ययन के लिए भी यह उपयोगी है। इसमें टकी, लाग एवं रखवाली आदि करों का उल्लेख है। पाटण्या गांव का दानपत्र (1677 ई.) : इस दानपत्र में पाटण्या गांव महारावत प्रतापसिंह (प्रतापगढ़) द्वारा महता जयदेव को दान करने का उल्लेख है। इसके प्रारंभ की पंक्तियों में गुहिल से लेकर भर्तृभट्ट तक के गुहिल राजाओं के नाम दिये हैं और फिर क्षेमकर्ण से लेकर हरिसिंह तक प्रतापगढ़ के नरेशों का क्रमबद्ध वर्णन है।
राजसिंह का ताम्रपत्र (1678 ई.) : यह ताम्रपत्र महाराणा राजसिंह के समय का है जिसमें वेणा नागदा को दो गाँव में तीन हल की भूमि राणी बडी पंवार के राजसमुद्र पर तुलादान के उपलक्ष में पुण्यार्थ दिये जाने का उल्लेख है।
कोघाखेडी (मेवाड़) का ताम्रपत्र (1713 ई.) : यह ताम्रपत्र कोघाखेडी गांव का है जिसको महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने दिनकर भट्ट को हिरण्याश्वदान में दिया था। यह गाँव भरख परगने के अंतर्गत था जहां कई प्रकार की लागते, जैसे खड, लाखड, गांवटका केलूखट आदि ली जाती थी। महाराणा ने इन सब लागतों को उसके लिए माफ कर दी थी। बेगूं का ताम्रपत्र (1715 ई.) : यह ताम्रपत्र महाराणा संग्रामसिंह के समय का है जिसमें प्रहलाद को बेगू से एक रहँट व भूमि पीवल, मॉल, बाग के देने का उल्लेख है। यह अनुदान भूमि के सभी वृक्ष, कुएं, नींवाण समेत किया गया था। यहां का दान राज्य का रहेगा ऐसा भी उल्लेख है।
सखेडी का ताम्रपत्र (1716 ई.) : यह ताम्रपत्र महारावत गोपालसिंह का है। इसमें कथकावल नामक कर का उल्लेख लागत-विलगत के साथ दिया गया है जो एक स्थानीय कर प्रतीत होता है।
गाँव गडबोड का ताम्रपत्र (1719 ई.) : यह ताम्रपत्र महाराणा श्री संग्रामसिंह के समय का है जिसमें 1900 रु. की आय के गांव चारभुजा के मंदिर में सदाव्रत के लिए बाईजीराज तथा कुंवर जगतसिंह ने वहां दर्शनार्थ आने के समय पुण्यार्थ किया। मंदिरों के साथ दाव्रत का प्रबंध होने और डोलियों का बगैर हासिल होने के इसके उल्लेख महत्वपूर्ण हैं।
वरखेडी का ताम्रपत्र (1739 ई.) : यह ताम्रपत्र महारावत गोपालसिंह के समय का है जिसमें कान्हा को लाख पसाव में वरखेडी गांव और लखणा की लागत देने का उल्लेख है। इसमें दिये गये 'लाख पसाव तथा लखणा की लागत बड़े महत्व के हैं। लाख पसाव एक सम्मानपूर्वक दिये गये इनाम से है जो कवीश्वरों तथा विद्जनों को दिया जाता था। इसी तरह लखणा की लागत भी एक प्रतिष्ठासूचक लागत लेने का विशेष अधिकार था।
दानपत्र (1747 ई. तथा 1750 ई.) : बांसवाड़ा के दो ये दो दानपत्र महारावल पृथ्वीसिंह के समय के हैं। इसमें महारावल का उज्जैन में क्षिप्रा के तट पर जानी वसीहा को 1 रहँट दान करने का उल्लेख है। ये दोनों दानपत्र ऐतिहासिक महत्व के हैं। जब जयवंसराय पंवार की सेना ने आकर बांसवाड़ा को घेर लिया तब महारावल सितारा गया और राजा शाहू से मिला और वहां प्रतिवर्ष नियमित रूप से खिराज देने का इकरार कर आया। इस पर मेघश्याम बापूजी ने आकर इस मामले की जांच की और मराठों का घेरा उठाया गया।
प्रतापगढ़ का ताम्रपत्र (1817 ई.) : यह ताम्रपत्र महारावत सामन्तसिंह के समय का है। जिसमें राज्य में लगने वाली 'ब्राह्मणों पर 'टंकी' को हटाने का उल्लेख है। यह 'टंकी' एक कर था जो प्रति रुपया एक आना के हिसाब से लगता था।
अंबलेश्वर स्तम्भ लेख (ई.पू. द्वितीय शताब्दी) : अंबलेश्वर नामक गांव प्रतापगढ़ (चित्तौड़) से 8 किलोमीटर दूर पूर्व में स्थित है। इस लेख की भाषा संस्कृतयुक्त प्राकृत है और इसके किनारे पर अशोकीय ब्राह्मी लिपि है। लेख का आशय यह है कि "उस पोण पुत्र भगवत् नामक व्यक्ति के द्वारा शैल भुजा का निर्माण करवाया गया, जो भागवत मतानुयायी उत्तर दिशा का संरक्षक, कल्याणकारी और अपरा नगर निवासी था तथा जिसकी कीर्ति तीनों लोकों में प्रसिद्ध थी।" जैसे घोसुंडी लेख में 'पूजाशिला' का प्रयोग विष्णु शिला के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, वैसे इस स्तम्भ लेख में 'शैल भुजा' शब्द का प्रयोग विष्णु शिला की प्रतिष्ठा का द्योतक सम्भावित है। कोडमदेसर का कीर्तिस्तम्भ |वि.सं. 1516 (1459 ई.) | : यह कीर्तिस्तम्भ जोधाजी द्वारा निर्मित किया गया और जिन्होंने अपनी माता द्वारा निर्मित तालाब की प्रतिष्ठा की और यहां एक कीर्तिस्तम्भ स्थापित किया। कुल-पुरोहित का दानपत्र [वि.सं. 1516 (1459 ई.) | : इसमें कुल पुरोहित की प्रतिष्ठा को सम्मानपूर्वक बनाये रखने और उसमें शुभ अवसर वाले 'नेगों' का उल्लेख
Ras notes provided me plz
ReplyDeleteHello
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