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राजस्थान के इतिहास के स्रोत व अभिलेख Part 2

          राजस्थान के इतिहास के स्रोत व अभिलेख  



मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति (880 ई.) : गुर्जर प्रतिहारों के लेखों में सर्वाधिक उल्लेखनीय मिहिरभोज का ग्वालियर अभिलेष है जो एक प्रशस्ति के रूप में है। इसमें कोई तिथि अंकित नहीं है। यह प्रतिहार वंश के शासको की राजनैतिक उपलब्धियों तथा उनकी वंशावली को ज्ञात करने का मुख्य साधन है।


(1) प्राप्त स्थल : भोज की ग्वालियर प्रशस्ति ग्वालियर नगर से एक किलोमीटर पश्चिम में स्थित सागर नामक स्थान से प्राप्त हुई है। 

(2) तिथि : यद्यपि यह प्रशस्ति तिथिविहिन है किन्तु तत्कालीन नरेशो तथा राजनैतिक इतिहास के द्वारा इसकी तिथि 880 ईस्वी के लगभग बैठती है।(

3) भाषा: लेख विशुद्ध संस्कृत में लिखा गया है।

(4) लिपि : लेख की लिपि उत्तरी ब्राह्मी लिपि है।

(5) लेखक : लेख का लेखक भट्टधनिक का पुत्र बालादित्य है।

K6 ) लेख का प्रकार : यह लेख एक प्रस्तर पर उत्कीण है। जो प्रशस्ति के रूप में है। लेख में 17 श्लोक है। 

( 7 ) लेख का उद्देश्य : ग्वालियर लेख का उद्देश्य गुर्जर प्रतिहार शासक भोज द्वारा विष्णु के मंदिर का निर्माण कराये जाने की जानकारी देना है साथ ही अपनी प्रशस्ति लिखवाना ताकि स्वयं को चिरस्थायी बना सके।

(8) अभिलेख का राजनैतिक महत्व : लेख की चौथी पंक्ति से प्रतिहार वंश की वंशावली के बारे में सूचना प्रारंभ होती है। लेख में राजाओं के नाम के साथ उनकी उपलब्धियों का भी वर्णन किया गया है। 17. प्रतापगढ़ अभिलेख (946 ई.), प्रतापगढ़ : इस अभिलेख में गुर्जर प्रतिहार नरेश महन्द्रपाल की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है।


बिजौलिया शिलालेख (भीलवाड़ा 1170 ई., प्रशस्तिकार गुणभद्र) :

 इस अभिलेख में सांभर (शाकम्भरी) एवं अजमेर के चौहानों का वर्णन है। इसके अनुसार चौहानों के आदिपुरुष वासुदेव चहमन ने 551ई. में शाकम्भरी चहमान (चौहान) राज्य की स्थापना की तथा सांभर झील का निर्माण करवाया था। उसने अहिच्छत्रपुर (नागौर) को अपनी राजधानी बनाया। इसमें सांभर तथा अजमेर के चौहानों को वत्सगोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है तथा उनकी वंशावली दी गई है। इसमें अनेक प्राचीन स्थलों का नाम दिया गया है, जैसे-जाबालिपुर (जालौर), शाकम्भरी (सांभर), नड्डुल (नाडोल), दिल्लिका (दिल्ली), श्रीमाल ( भीनमाल), नागहृद (नागदा), उत्तमाद्री (ऊपरमाल), मांडलकर (मांडलगढ़), विंध्यवल्ली (बिजौलिया), अहिच्छत्रपुर (नागौर) आदि। इस अभिलेख 'उत्तम शिखर पुराण' की स्थापना है। उस समय दिये जाने वाले भूमि अनुदान को 'डोहली' की संज्ञा दी जाती थी और भूमि को क्षेत्रों में बांटा जाता था। इसी तरह ग्राम समूह की बड़ी इकाई के लिए 'प्रतिगण' का प्रयोग किया जाता था। गांवों तथा प्रतिगणों के

में'जैन श्रावक लोलाक' द्वारा पार्श्वनाथ मंदिर निर्माण की स्मृति में करवाई गई थी, ऐसा इसमें उल्लेख किया गया अधिकारियों को 'महत्तम' तथा पारिग्रही' आदि नामों से जाना जाता था। इस शिलालेख से यह भी जानकारी मिलती है कि विग्रहराज चतुर्थ ने दिल्लिका (दिल्ली) को अपने अधीन किया था।

चित्तौड़ के जैन कीर्तिस्तम्भ के तीन लेख (13वीं सदी) : इन तीनों लेखों का संबंध चित्तौड़ के जैन कीर्ति-स्तम्भ से है, क्योंकि तीनों में स्तम्भ के स्थापनकर्त्ता साह जीजा तथा उनके वंश का विवरण उपलब्ध होता है। इसके प्रारंभ में दीनाक तथा उनकी पत्नी वाच्छी के पुत्र नाय द्वारा एक मंदिर के निर्माण का वर्णन है। विशालकीर्ति के शिष्य शुभकीर्ति के शिष्य धर्मचन्द्र थे महाराणा हम्मीर ने इनका खूब सम्मान किया था। इनके द्वारा मानस्तम्भ की स्थापना की गई थी। दूसरे लेख का मुख्य भाग स्याद्वाद के संबंध में है। इस लेख का अंतिम पंक्ति में बघेरवाल जाति के सानाय के पुत्र जीजाक द्वारा स्तम्भ निर्माण का उल्लेख है। 

 अचलेश्वर प्रशस्ति : यह प्रशस्ति बहुत बड़ी है। इसमें अग्निकुंड से पुरुष के उत्पन्न होने का उल्लेख है तथा वर्णित है कि परमारों का मूल पुरुष धूमराज था

लूणवसही (आबू-देलवाड़ा) की प्रशस्ति (1230 ई.) : यह प्रशस्ति पोरवाड़ जातीय शाह वस्तुपाल तेजपाल द्वारा बनवाये हुए आबू के देलवाड़ा गांव के लूणवसही के मंदिर की संवत् 1287 की है। इसकी भाषा संस्कृत है और नरेशों का उल्लेख मिलता है। इस अभिलेख में महाराणा कुम्भा की प्रारंभिक विजयों-बूंदी, गागरीन, सारंगपुर, नागौर, चाकसू, अजमेर, मन्डोर, माण्डलगढ़ आदि का भी वर्णन है। इस लेख से तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। 

रणकपुर प्रशस्ति (1439 ई.) पाली, प्रशस्तिकार देपाक (दीपा) : इसमें मेवाड़ के वंश का वर्णन मिलता है। इसमें बापा एवं कालभोज को अलग-अलग व्यक्ति बताया गया है। इसमें महाराणा कुंभा की विजयों एवं उपाधियों का विशद् वर्णन है। इसमें गुहिलों को बापा तत्कालीन आर्थिक एवं धार्मिक राजवंश एवं धरणक सेठ के रावल का में पर्याप्त जानकारी मिलती है। 

कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति (1440-1448 ई.) चित्तौड़गढ़, प्रशस्तिकार, महेशभट्ट : इसका प्रशस्तिकार महेश भ था। यह राणा कुंभा की प्रशस्ति है। इसमें बापा से लेकर राणा कुंभा तक गुहिलों की वंशावली एवं उनकी उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें राणा कुंभा की उपलब्धियों एवं उसके द्वारा रचित ग्रंथों का विशद् वर्णन मिलता है। इस प्रशस्ति में चण्डीशतक, गीतगोविन्द की टीका, संगीतराज आदि प्रमुख ग्रन्थों का उल्लेख हुआ हैं। प्रशस्ति जीवन के बारे में कुंभा को महाराजाधिराज, अभिनव भरताचार्य, हिन्दू सुरताण, रायरायन, राणो रासो, छापगुरु, दानगुरु, राजगुरु और शैलगुरु जैसी उपाधियों से पुकारा गया है। इसमें मालवा एवं गुजरात की संयुक्त सेना को कुंभा द्वारा परास्त करना तथा विजय के उपलक्ष्य में चित्तौड़ में विजय स्तम्भ का निर्माण करने तथा अनेक मंदिरों के निर्माण का उल्लेख किया गया है। इससे 15वीं सदी के राजस्थान की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक दशा की विशद जानकारी मिलती है। 

माचेडी की बावली का दूसरा शिलालेख (1458 ई.) माचेडी की बावली के दूसरे शिलालेख से प्रमाणित होता. है कि उस भाग में बडगूजर वंशी रजपालदेव का राज्य था। यह रजपालदेव रामसिंह का पुत्र था और रामसिंह ★ गोगदेव का पुत्र अथवा पौत्र अनुमानित किया जाता है।


कुंभलगढ़ प्रशस्ति (1460 ई.) राजसमन्द, प्रशस्तिकार महेश : इसका प्रशस्तिकार (उत्कीर्णक) कवि महेश था। इसमें गुहिल वंश का वर्णन एवं उनकी उपलब्धियाँ बताई गई हैं। इस लेख में बापा रावल को विप्रवंशीय ब्राह्मण) बताया गया है। यह मेवाड़ के महाराणाओं की वंशावली को विशुद्ध रूप से जानने का महत्त्वपूर्ण साधन है। इसमें तत्कालीन समय की दासता, वर्णाश्रम व्यवस्था, तपस्या, शिक्षा, यज्ञ आदि का वर्णन मिलता है।


कुम्भलगढ़ का शिलालेख (1460 ई.) : यह शिलालेख पांच शिलाओं पर उत्कीर्ण था जिसमें से पहली, तीसरी और चौथी शिलाएं उपलब्ध हैं। इनमें प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत तथा लिपि नागरी है। पहली शिला में 68 श्लोक हैं। एकलिंगजी के मंदिर तथा कुटिला नदी के वर्णन में बड़ी स्वाभाविकता है। दूसरी शिला में चित्रांग ताल, चित्तौड़ दुर्ग तथा चित्तौड़ का वैष्णव तीर्थरूप होने का वर्णन मिलता है। प्रशस्तिकार ने यहां बापा को स्पष्ट रूप से विप्रवंशीय कहा है जो बड़े महत्व का है। तीसरी शिला में वंश-वर्णन चलता रहता है जिसमें बापा को फिर विप्र कहा गया है जिसने हारीत की अनुकंपा से मेवाड़ राज्य प्राप्त किया। यहां प्रशस्तिकार ने बापा को वंश प्रवर्तक माना है और गुहिल को उसका पुत्र लिखा है जो भ्रमात्मक है। इसमें गुहा के पुत्र लाटविनोद का नाम दिया है जो अन्यत्र नहीं मिलता। इसके बाद खुमाण की विजयों तथा उसके तुलादान का वर्णन आता है। इसके पश्चात् इसमें दिया गया राज-वर्णन एकलिंग माहात्म्य के राज-वर्णन से मिलता जुलता है। इस प्रशस्ति से उस समय के मेवाड़ के चार विभागों का पता चलता है जो चित्तौड़, आघाट, मेवाड़ और वागड़ थे। चतुर्थ प्रशस्ति में हम्मीर के वर्णन में उसके चेलावाट जीतने का वर्णन है और उसे "विषमघाटी पंचानन" कहा गया है। मोकल के वर्णन के साथ सपादलक्ष जीतने तथा फीरोज को हराने का उल्लेख मिलता है। इस प्रशस्ति में विशेष रूप से कुम्भा का वर्णन तथा उसकी विजयों का सविस्तार उल्लेख है। उसके द्वारा की गई विजयों में योगिनीपुर, मंडोवर, यज्ञपुर, हमीरपुर, वर्धमान, चम्पावती, सिंहपुरी, रणस्तम्भ, सपादलक्ष, आभोर, बंबावदा, मांडलगढ़, सारंगपुर आदि मुख्य हैं। कुम्भलगढ़ का निर्माण तथा वहां अनेक मंदिर, बाग और बावड़ियां भी कुम्भा द्वारा बनवाये जाने का उसमें उल्लेख है। डॉ. ओझा के विचार से चित्तौड़ प्रशस्ति का रचयिता महेश ही होना चाहिए।


रायसिंह प्रशस्ति (1594 ई.) बीकानेर, प्रशस्तिकार जैन मुनि जैता : इसका प्रशस्तिकार क्षेमरत्न का शिष्य जैन मुनि जैता (जड़ता था। इसमें राव बीका से लेकर राव रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें राव रायसिंह की विजयों एवं साहित्य प्रेम का विशद् वर्णन है। बीका से रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का परिचय मिलता है। रायसिंह के कार्यों का उल्लेख आरम्भ होता है जिसमें उसकी काबुलियों, सिंधियों और कच्छियों पर विजयें मुख्य हैं। इसके अनुसार बीकानेर दुर्ग का निर्माण 30 जनवरी,

इसे गद्य में लिखा गया है। इसमें आबू के परमार शासकों तथा वस्तुपाल तेजपाल के वंश का वर्णन है। इसमें उल्लिखित है कि सोमसिंह के समय में मंत्री वस्तुपाल के छोटे भाई तेजपाल ने आबू पर देलवाड़ा गांव में लूणवसही नामक नेमिनाथ का मंदिर अपनी स्त्री अनुपमादेवी के श्रेय के लिए बनवाया। इस मंदिर की प्रतिष्ठा विजयसेन सूरि ने की।


नेमिनाथ (आबु) के मंदिर की प्रशस्ति (1230 ई.) : यह प्रशस्ति वि.सं. 1287 की है। इसको तेजपाल के द्वारा बनवाये गये आबू पर देलवाड़ा गांव के नेमिनाथ के मंदिर में लगाई गई थी। इसमें आबू, मारवाड़, सिंध, मालवा तथा गुजरात के कुछ भागों पर शासन करने वाले परमारों तथा वस्तुपाल और तेजपाल के वंशों का वर्णन दिया है। उक्त प्रशस्ति में उल्लिखित है कि यशोधवल ने कुमारपाल के शत्रु मालवा के राजा बल्लाल को मारा। यशोधवल के दो पुत्र धारावर्ष और प्रहलादनदेव थे। धारावर्ष, आबू के परमारों में बड़ा प्रसिद्ध और पराक्रमी शासक था। धारावर्ष का छोटा भाई प्रह्लादनदेव वीर एवं विद्वान् था। धारावर्ष का पुत्र सोमसिंह था। उसके समय में मंत्री वस्तुपाल के छोटे भाई तेलपाल ने आबू पर देलवाड़ा गांव में लूणवसही नामक नेमिनाथ का मंदिर करोड़ों रुपये लगाकर अपने पुत्र लूणसिंह तथा अपनी स्त्री अनुपमादेवी के श्रेय के लिए बनवाया था। इस प्रशस्ति की रचना सोमेश्वरदेव ने को और उसे सूत्रधार चण्डेश्वर ने खोदा। इस मंदिर की प्रतिष्ठा विजयसेन सूरि द्वारा सम्पादित की


 चीरवा अभिलेख (उदयपुर): चीरवा शिलालेख 1273 ई. का है। 36 पंक्तियों एवं देवनागरी लिपी में तथा संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध 51 श्लोकों का शिलालेख मेवाड़ के गुहिलवंशी राणाओं की समरसिंह के काल तक की जानकारी प्रदान करता है। उस काल की प्रशासनिक व्यवस्था में तलारक्षों का कार्य तथा धार्मिक और सामाजिक प्रथाओं (जैसे सती प्रथा के प्रचलन) के बारे में जानकारी देता है। लेख में एकलिंगजी के अधिष्ठाता पाशुपात योगियों के अग्रणी शिवराशि और मंदिर की व्यवस्था भी उल्लेख है। भुवनसिंहसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि ने चित्तौड़ में रहते हुए चोरवा शिलालेख की रचना की और उनके मुख्य शिष्य पाश्वचंद ने, जो बड़े विद्वान थे, उसको सुन्दर लिपि में लिखा। पद्मसिंह के पुत्र केलिसिंह ने उसे खोदा और शिल्पी देल्हण ने उसे दीवार में लगाने का कार्य संपादन किया। 


रसिया की छतरी का लेख (1274 ई.): यह लेख वि.सं. 1331 का है जिसकी रचना प्रियपटु के पुत्र नागर जाति के ब्राह्मण बंद शर्मा ने की थी, जो चित्तौड़ का निवासी था। इसको सूत्रधार सज्जन ने उत्कीर्ण किया था। प्रस्तुत लेख का प्रारम्भ देवताओं की वंदना तथा गुहिलवंश की प्रशंसा से होता है। 13वीं शताब्दी की मेवाड़ की प्राकृतिक स्थिति, उपज, वृक्षावली तथा पक्षियों के संबंध में जानकारी के लिए इसका प्रभूत उपयोग है। 10वें श्लोक में बापा का वर्णन आता है जिसमें उसका हारीत द्वारा सुवर्ण कटक तथा राज्य प्राप्त करने का उल्लेख तथा बापा द्वारा यज्ञस्तम्भ स्थापित करना महत्वपूर्ण है। प्रशस्तिकार ने गुहिल को बापा का पुत्र बताया है। इसमें गुहिल के बाद शील, काल, भोज, मम्मट, सिंह, महायक, खुम्माण, अल्लट, शक्तिकुमार, अम्बाप्रसाद, शुचिवर्मा और नरवर्मा नामक मेवाड़ के शासकों की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है।


सच्चियामाता अभिलेख, ओसियां सच्चिया माता मंदिर में उत्कीर्ण इस लेख से मारवाड़ की राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। कल्हण एवं कीर्तिपाल का वर्णन दिया गया है। इस लेख में केल्हण को महाराजा तथा कीर्तिमाल को माडव्यपुर का अधिपति तथा धारावर्य को विजयी उल्लिखित किया है।


शृंगी ऋषि का शिलालेख (1428 ई.) : यह एकलिंगजी के निकट श्रृंगी ऋषि नामक स्थान से खण्डित दशा में प्राप्त हुआ है। यह लेख मोकल के समय का है जिसने अपने धार्मिक गुरु की आज्ञा से अपनी पत्नी गौराम्बिका को मुक्ति के लिए ऋषि के पवित्र स्थान पर एक कुंडे को बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा की। इस लेख की रचना कविराज वाणी विलास योगेश्वर ने की थी। इस लेख से ज्ञात होता है कि हमीर ने भीलों से सफलतापूर्वक युद्ध किया और अपने शत्रु राजा जैन को पराजित किया। इस लेख में लक्ष्मणसिंह तथा क्षेत्रसिंह का वर्णन है। उसके लाखा के बारे में वर्णन है कि उसने त्रिस्थली काशी, प्रयाग और गया की यात्रा की एवं मंदिर बनवाए जहां उन्होंने दान में विपुल धनराशि दी थी। लाखा के पुत्र मोकल के संबंध में भी लेख में उल्लेख किया गया है कि उसने फीरोज खां (नागौर) तथा अहमद (गुजरात) से दो युद्ध लड़े और उन्हें परास्त किया।


समिधेश्वर मंदिर का शिलालेख : यह लेख 1429 ई. का है। इस लेख की रचना एकनाथ ने की थी। इस लेख से मेवाड़ के शिल्पियों की वंश परम्परा के विषय में जानकारी होती है।

 रणकपुर प्रशस्ति का लेख : यह लेख 1439 ई. का है जो कि रणकपुर के जैन चौमुख मंदिर में लगा हुआ हैं। इस लेख से प्रतीत होता है कि रणकपुर का निर्माता दीपा था। इस लेख में बापा से लेकर कुम्भा तक के मेवाड़ नरेशों का उल्लेख मिलता है। इस अभिलेख में महाराणा कुम्भा की प्रारंभिक विजयों-बूंदी, गागरीन, सारंगपुर, नागौर, चाकसू, अजमेर, मन्डोर, माण्डलगढ़ आदि का भी वर्णन है। इस लेख से तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है।


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2 Comments

  1. राजस्थान : प्रशासनिक एवं राजनीतिक व्यवस्था BY JANAK SINGH MEENA

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