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राजस्थान के इतिहास के स्रोत व अभिलेख Rajastan GK

                 राजस्थान के इतिहास के स्रोत



• इतिहास के स्रोतों को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है। पुरातात्विक तथा साहित्यिक स्रोत राजस्थान के ऐतिहासिक को हम संस्कृत भाषा का ऐतिहासिक साहित्य, राजस्थानी भाषा का ऐतिहासिक साहित्य, हिन्दी भाषा का ऐतिहासिक साहित्य तथा प्राकृत भाषा/जैन भाषा का ऐतिहासिक साहित्य में बांट सकते हैं। पुरातात्विक स्रोतों को अभिलेखों, मुद्रा एवं ताम्र पत्रों आदि में विभाजित कर सकते हैं।


पुरातात्विक स्रोत (Archaeological Sources)


• राजस्थान के इतिहास के अध्ययन के लिए पुरातात्विक स्रोत सर्वाधिक प्रामाणिक साक्ष्य हैं। इनमें मुख्यतः खुदाई में निकली सामग्री, अभिलेख, सिक्के, स्मारक, ताम्रपत्र, भवन, मूर्ति, चित्रकला आदि आते हैं। पुरातात्विक स्रोतों के उत्खनन, सर्वेक्षण, संग्रहण, अध्ययन एवं प्रकाशन आदि का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना अलेक्जेन्डर कनिंघम के नेतृत्व में 1861 ई. में की गई थी। राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण कार्य सर्वप्रथम 1871 ई. में प्रारंभ करने का श्रेय ए.सी.एल. कालांइल को जाता है। 1902 ई. में जॉन मार्शल के द्वारा इसका पुर्नगठन हुआ। इसके तहत कालान्तर में राजस्थान में व्यापक स्तर पर उत्खनन कार्य प्रारम्भ किया गया। राजस्थान में उत्खनन कार्य का श्रेय डी. सांकलिया, बी.एन. मिश्र, आर.सी. अग्रवाल, बी.बी. लाल, ए. एन. घोष, दयाराम साहनी, एस.एन. राजगुरु, डी.पी. अग्रवाल, विजय कुमार, ललित पाण्डे, जीवन खरकवाल जैसे पुरावेत्ताओं को जाता है। राजस्थान से संबंधित प्रमुख पुरातात्विक स्रोत निम्नलिखित हैं :


A. अभिलेख (Epigraphic)


पुरातात्विक स्रोतों के अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। इसका मुख्य कारण उनका तिथियुक्त एवं समसामयिक होना है। इनमें वंशावली, तिथियाँ, विजय, दान, उपाधियाँ, शासकीय नियम, उपनियम, सामाजिक नियमावली अथवा आचार संहिता, विशेष घटना आदि का विवरण उत्कीर्ण करवाया जाता रहा है। प्रारंभिक अभिलेखों की भाषा संस्कृत है, जबकि मध्यकालीन अभिलेखों की भाषा संस्कृत, फारसी, उर्दू, राजस्थानी आदि है। जिन अभिलेखों में मात्र किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे 'प्रशस्ति' कहते हैं।


अभिलेखों के अध्ययन को 'एग्रा की' कहते हैं। अभिलेखों में शिलालेख, स्तम्


लेख, गुहालेख, मूर्तिलेख,


पट्ट्लेख आदि आते हैं अर्थात् पत्थर, धातु आदि पर उकेरे गए लेख सम्मिलित हैं। भारत में सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक मौर्य के है जो प्राकृत मागधी भाषा एवं मुख्यतया ब्राह्मी लिपि (अन्य लिपियां है खरोष्ठी, अरंमाइक और यूनानी) में


लिखे गए हैं। शक शासक रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख भारत में पहला संस्कृत का अभिलेख है। राजस्थान के अभिलेखों की मुख्य भाषा संस्कृत एवं राजस्थानी है। इनकी शैली गद्य-पद्य हैं तथा इनकी लिपि महाजनी एवं हर्षकालीम है, लेकिन नागरी लिपि को विशेष रूप से काम में लाया गया है। राजस्थान के इतिहास से संबंधित कुछ प्रमुख अभिलेख


निम्नलिखित हैं

विराट नगर अभिलेख (जयपुर), अशोक मौर्य : यहाँ अशोक मौर्य के दो अभिलेख मिले हैं। भानू शिला फलक एवं चैराठ अभिलेख। भानू शिला फलक कप्तान बर्ट को विराटनगर में 'बीजक की पहाड़ी' से मिला था। आजकल यह कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित रखा होने के कारण कलकत्ता बैराठ लेख कहलाता है। इसमें अशोक स्पष्टतः बुद्ध, धम्म, संघ (बौद्ध त्रिरल) में आस्था प्रकट करता है, जो अशोक को बौद्ध सिद्ध करता है। दूसरा अभिलेख भी विराट नगर से मिला है।

 नगरी का लेख (200-150. ई.पू.) : यह नगरी से उपलब्ध हुआ था जो उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है। इसकी लिपि घोसुंडी के लेख की लिपि से मिलती-जुलती है। इसमें प्रयुक्त कुछ वाक्य और शब्द बड़े महत्व के हैं। 

(वें) भूतानों दयार्थी' और 'ता' (कारिता) से अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां सब जीवों की दया के निमित्त या तो कोई नियम बनाया गया हो अथवा यहां कोई स्थान बनाया गया हो जहां जीवों की रक्षा की सुविधा हो सके। सम्भवतः यह लेख बौद्धों या जैनों से संबंध रखता हो । 

घोसुण्डी शिलालेख (द्वितीय सदी ई.पू.), चित्तौड़गढ़ : डॉ. डी.आर. भण्डारकर द्वारा प्रकाशित शिलालेख (उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित) राजस्थान में वैष्णव (भागवत) संप्रदाय से संबंधित प्राचीनतम् अभिलेख है,


जो द्वितीय शती ईसा पूर्व का है। इसकी भाषा संस्कृत एवं लिपि ब्राह्मी है। इसमें गजवंश के शासक सर्वात (पाराशरी का पुत्र) द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने एवं विष्णु मंदिर की चारदीवारी बनवाने का उल्लेख है। इसमें भगव की पूजा के निमित्त 'शिला प्राकार' बनवाये जाने का वर्णन है। इससे सूचित होता है कि इस समय तक राजस्थान में अश्वमेध यज्ञ का प्रचलन भागवत धर्म एवं संकर्षण एवं वासुदेव की मान्यता लोकप्रिय हो चुकी थी। इस लेख


का महत्त्व प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्षण तथा वासुदेव की मान्यता और अश्वमेध यज्ञ के प्रचलन आदि में है। इसकी तीन प्रतियां प्राप्त होती है।

 बरली का शिलालेख : यह शिलालेख राजस्थान का प्राचीनतम शिलालेख कहलाता है। अजमेर से 35 किमी. दूर बरली के पास मिलोत माता के मंदिर से इसे प्राप्त किया गया था। यह दूसरी शताब्दी ई.पू. का है तथा ब्राह्मी लिपि है। 

मानमोरी अभिलेख (चित्तौड़गढ़) : यह अभिलेख मौर्य वंश से संबंधित है। इसका प्रशस्तिकार नागभट्ट का पुत्र


निर्माण करवाया था। इसमें चार मोरिय (मौर्य) राजाओं यथा-महेश्वर (शत्रुहन्ता), भीम (अवन्तिपुर का राजा), भोज एवं राजा मान का उल्लेख आया है। यह लेख ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा उपयोगी है। इस वंश का इसमें तक्षक


वंश का तथा अग्नि वंश से उत्पन्न होने का उल्लेख महत्वपूर्ण है। इसमें अमृत मंथन की कथा एवं उसके संबंध में कर का उल्लेख है। जब कर्नल टॉड इसे इंग्लैण्ड ले जा रहा था तो असंतुलन के कारण समुद्र में फेंकना पड़ा।

 नांदसा यूप-स्तम्भ लेख (225 ई.) : नांदसा भीलवाड़ा का एक गांव है। जहां गोल स्तम्भ है जो लगभग 12 फीट ऊँचा और साढ़े पांच फीट गोलाई में है। इस पर एक 6 पंक्तियों का लेख और दूसरा 11 पंक्तियों का उसके चारों और उत्कीर्ण है। इन दोनों लेखों में प्रतिपादित विषय मूलतः एक ही है, शक्ति गुणगुरु नामक व्यक्ति द्वारा यहां षष्ठिराज यज्ञ सम्पादित किया गया था और इस घटना को पश्चिमी क्षत्रपों के राज्य काल में उत्कीर्ण किया गया था। इस लेख का समय चैत्र की पूर्णिमा, कृत संवत् 282 है। स्तम्भ की स्थापना सोम द्वारा की गई थी। इसमें प्रयुक्त शब्द- सप्त सोम संस्था का अभिप्राय सात-स्तम्भों की यज्ञ के निमित्त स्थापना है।


बड़वा यूप अभिलेख (238-39 ई.), कोटा : बड़वा यूप अभिलेख बड़वा ग्राम कोटा में स्थित है। इसकी भाषा


संस्कृत एवं लिपि ब्राह्मी उत्तरी है। इसमें कृत संवत् 295 का उल्लेख किया गया है। जिसमें कहा गया है कि कृत युग के 295 वर्ष व्यतित होने पर मौखरी शासकों ने यज्ञ किये। इसमें प्रारंभिक मौखरियों की स्थिति (छठी सदी) के बारे में बताया गया है। [ PATWARI 2016] 

मौखरी राजाओं का यह सबसे पुराना और पहला अभिलेख है। यह तीन यूप पर खुदा है। यूप एक प्रकार का स्तम्भ है। इससे मौखरियों की एक नई शाखा का पता लगता है। बडवा यूप का प्रमुख व्यक्ति बल था, जो अन्य शाखाओं से अधिक पुरानी शाखा से संबंध रखता है। उसकी उपाधी महासेनापति होने से अर्थ निकलता है कि

वह बहुत बलशाली था। यह प्रतीत होता है कि ये शक-क्षत्रपों के अधीन रहे होंगे। इसमें उल्लेख है बलवर्धन, सोमदेव व बलसिंह नामक तीन भाईयों ने त्रिरात्र यज्ञों का संपादन किया गया। दूसरे स्तंभ लेख में 'अप्तायाम यज्ञ' की चर्चा है जिसे मौखरी धनत्रात ने संपादित किया।


1. श्री महासेनापति मौखरी बल पुत्र बलवर्द्धन का यूप जिसने यज्ञ किया।

 2. श्री महासेनापति मौखरी बल पुत्र सोमदेव का यूप जिसने यज्ञ किया।

3. श्री महासेनापति मौखरी बलि पुत्र बलसिंह का यूप जिसने यज्ञ किया।

 नगरी का शिलालेख (424 ई.) : इस लेख को डी.आर. भंडारकर ने नगरी से उत्खनन के समय प्राप्त किया था। इसे अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित कर दिया गया। इसकी भाषा संस्कृत और लिपि नागरी है। 'जयति भगवान विष्णु 'कृत' 'मालव पूर्वायां' तथा 'भगवान्महापुरुषापादाम्भां प्रासाद' आदि शब्दों के व्यवहृत होने से इसका संबंध विष्णु


की पूजा के स्थान विशेष से हो रहा हो। लेख में सत्यशूर, श्रीगंध और दास नामक तीन भाइयों के नाम उस युग के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के बोधक हैं।

 भ्रमरमाता का लेख (490 ई.) : छोटी सादड़ी में (जिला चित्तौड़) भ्रमरमाता का मंदिर है। यहां से 17 पंक्तियों का संस्कृत पद्य में लेख उपलब्ध हुआ है जो पांचवीं शताब्दी की राजनीतिक स्थिति को समझने में बड़ा सहायक है।


इसमें गौरवंश तथा औलिकर वंश के शासकों का वर्णन मिलता है। गौरवंश के पुण्यशोभ, राज्यवर्द्धन, यशोगुप्त आदि शासकों तथा औलिकार वंश के आदित्यवर्द्धन के नाम उपलब्ध होते हैं। गौरवंशीय शासकों द्वारा ही यहां माता का मंदिर बनवाया गया जिससे इनकी शाक्त धर्म के प्रति भक्ति होना दिखाई पड़ता है। प्रस्तुत लेख में अपराजित राजपुत्र गोभट्टपादानुध्यात्' पंक्ति बड़े महत्व की है। 'राजपुत्र' शब्द से किसी भी सामन्त का किसी शासक के प्रति सेवाभावी होना प्रमाणित होता है। यह लेख बड़े काम का है। इसमें मृत्यु के उपरान्त ब्राह्मणों को दान देने की की प्रथा पर भी प्रकाश पड़ता है। प्रशस्ति का रचयिता मित्रसोम का पुत्र ब्रह्मसोम और लेखक पूर्वा था।


बसन्तगढ़ का लेख (625 ई.) : सिरोही जिले के बसंतगढ़ के वि.सं. 682 के लेख राजा वर्मलात के समय का इस लेख से पाया जाता है कि उक्त संवत् में वर्मलात का स्तम्भ राज्जिल, जो वज्रभट (सत्याश्रय) का पुत्र था और अर्बुद देश का स्वामी था। सामन्त प्रथा पर इस लेख से कुछ प्रकाश पड़ता है।


सांगोली शिलालेख (646 ई.) : यह शिलालेख मेवाड़ के दक्षिण में भोमट तहसील सांमोली गांव से मिला है। यह लेख मेवाड़ के गुहिल राजा शीलादित्य के समय का वि.सं. 703 (ई.सं. 646) का है। इसमें प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत तथा लिपि कुटिल है। मेवाड़ के गुहिल वंश के समय को निश्चित करने तथा उस समय की आर्थिक तथा साहित्यिक स्थिति को जानने के लिए यह लेख बड़े काम का है। इस शिलालेख में प्रयुक्त शब्द 'विजयी' 'वटनगर', 'आगरा', 'आरण्यकगिरि' तथा 'अरण्यवासिनी', 'महत्तर' आदि बड़े महत्व के हैं। इससे यह भी संकेत मिलता है कि जावर के निकट के अरण्यगिरि में तांबे और जस्ते की खानों का काम भी इसी युग से आरंभ हुआ हो।


अपराजित का शिलालेख (661 ई.) : यह लेख नागदे गांव के निकटवर्ती कुंडेश्वर के मंदिर में मिला। इस लेख का सारांश इस प्रकार है- "गुहिल वंश के तेजस्वी राजा अपराजित ने सब दुष्टों को नष्ट किया और अनेक राजा उसके आगे सिर झुकाते थे। अरुंधती के समान विनयवाली उस (वराहसिंह) की यशोमति ने लक्ष्मी, यौवन और वित्त को क्षणिक मानकर संसार रूपी विषय समुद्र को तैरने के लिए नावरूपी कैटभरिपु (विष्णु) का मंदिर बनवाया।"" 

कणसवा अभिलेख (738 ई.) कोटा : इस अभिलेख में मौर्य वंशी राजा धवल का उल्लेख आया है। संभवतः धवल राजस्थान में अंतिम मोरी (मौर्य) वंशी राजा था। 13. 14. मण्डौर अभिलेख (837 ई.), जोधपुर यह गुर्जर नरेश 'बाउक' की प्रशस्ति है। इसमें गुर्जर प्रतिहारों की वंशावली, विष्णु एवं शिव पूजा का उल्लेख किया गया है। 

घटियाला शिलालेख (861 ई.) जोधपुर : इस अभिलेख को कक्कुक प्रतिहार ने उत्कीर्ण करवाया था। इन लेखों में 'मग' जाति के ब्राह्मणों का वर्णन है। इस जाति के लोग मारवाड़ में शाकद्वीपीय ब्राह्मण के नाम से भी जाने जाते हैं जो ओसवालों के आश्रित रह कर जीवन निर्वाह करते हैं। जैन मंदिरों में सेवा-पूजा के कार्य करने से इन्हें सेवक भी कहा जाता है। इन लेखों से तत्कालीन वर्ण-व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है। इन लेखों का लेखक 'मग' तथा उत्कीर्णक सुवर्णकार 'कृष्णेश्वर' था। घटियाला से वि.सं. 918 चैत्र शुक्ला 2 के दो लेख उपलब्ध हुए। इनमें से एक लेख महाराष्ट्री भाषा का श्लोकबद्ध और दूसरा उसी का आशय रूप संस्कृत में है। इनसे पाया जाता है 'हरिशचन्द्र' नामक ब्राह्मण, जिसको रोहिल्लद्धि भी कहते थे; वेद तथा शास्त्रों का अच्छा ज्ञाता था। उसके दो स्त्रियां थीं- एक ब्राह्मण वंश से तथा दूसरी क्षत्रिय कुल से ब्राह्मणी के पुत्र ब्राह्मण प्रतिहार और क्षत्रिय रानी के मद्यपान करने वाले क्षत्रिय कहलाये। हरिशचन्द्र का समय इसमें उपलब्ध नहीं है, परन्तु बाउक के समय का अंकन, जो इसमें संवत् 894 दिया है, उससे औसत 20 वर्ष मानने से हरिश्चन्द्र का समय वि.सं. 654 (597 ई.) होता है। उसके चार पुत्र- भोगभट, कक्क, रज्जिल और दह ने मिलकर मंडोर दुर्ग का ऊँचा प्राकार बनवाया। हरिश्चन्द्र के उत्तराधिकारी क्रमशः रज्जिल, नरभट तथा नागभट थे। नागभट् ने मेड़ता को अपनी राजधानी बनाया। इसके पुत्र तात ने राज्य छोड़कर अपने भाई भोज को दे दिया और स्वयं माडव्य के आश्रम में रहकर अपना जीवन बिताता रहा।चंदुक के पुत्र शीलुक ने अपने राज्य का विस्तार त्रिवेणी और बल्लदेश की सीमा तक बढ़ाया और बल्लदेश के राजा भट्टक को परास्त कर उसका छत्र छीना। भिल्लादित्य का पुत्र कक्क बड़ा प्रतापी और विद्वान था। उसने मुंगेर के गौड़ों को परास्त किया। वह रघुवंशी प्रतिहार वत्सराज का सामंत था। उसके पुत्र बाउक ने नंदावल्ल को परास्त किया।

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