मुद्राशास्त्र (Coins) Rajastan Gk Part2
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मेवाड़ में चलने वाले सिक्के : इस राज्य में प्राचीन काल से ही सोने, चांदी और तांबे के सिक्के चलते थे। वेब अनुसार ये सिक्के 'इंडोसेसेनियन' शैली के थे। चांदी के सिक्के, द्रम्म, रूपक और तांबे के कर्षापण कहलाते थे। सिक्कों पर कोई लेख नहीं रहता था। वर्तमानकाल तक चलने वाला 'ढींगला' इसी परम्परा का द्योतक माना गया है। इन पर 'शिबि जनपद' भी अंकित रहता है। वहीं से यूनानी राजा मिनेन्डर के 'द्रम्म' भी प्राप्त हुए हैं। हूणों द्वारा प्रचलित चांदी - और तांबे के सिक्के जिन्हें 'गधिया मुद्रा' कहा जाता है; मेवाड़ के कई कस्बों के बाजारों में उपलब्ध होते हैं। वेब के विचार से यह मुद्रा फारस के बादशाह बहराम द्वारा प्रचलित की गई थी और धीरे-धीरे इसका स्वरूप 'गधिया' मुद्रा में परिणत हो गया।
मुस्लिम विजय से 12वीं सदी से 'मुहम्मद बिन साम' व 'सुरति समरूददीन' नाम तथा अ शैली के मिलेजुले सिक्के राजस्थान में पाये जाते हैं जिनका प्रचलन मेवाड़ में भी थानों को 'टका' और 'दिरहम' नाम से पुकारा जाता था। मेवाड़ में उदयपुरी, भीलाड़ी, चित्तौड़ी एवं एलची तथा जोधपुर में विजय गुगत प्रभावचलित थे।
चित्तौड़ की टकसाल से अकबर के सिक्के निकलने लगे। जहांगीर तथा पिछले सघाटों के भी यहां लगे जिन्हें 'सिक्का एलची' कहते थे। मुहम्मदशाह के समय से मेवाड़ में भितीद, भीलवाड़ा और उदयपुर की साल में स्थानीय सिक्का बनने लगा जिसको चित्तौड़ी', "भीलाड़ी' और 'उदयपुरी' स्वैया कहते थे। महाराणा स्वरूपसिंह ने अंग्रेज से संधि कर 'स्वरूपशाही' रुपया चलाया। इसके एक तरफ चित्रकूट-उदयपुर और दूसरी ओर 'दोस्ति लंघन' रहता था। स्वरूपशाही स्वर्ण मुहर का भी प्रचलन था जिसका वजन 100 पेन होता था। '' स्वर्ण मुहर भी रूपसिंह के समय की थी। 'शाहआलमी' चित्तौड़ी रुपया भी होता था जो चांदी का रहता था। इसी तरह एक किस्म 'उदयपुरी' रुपये की भी होती थी। मेवाड़ में तांबे के भी कई सिक्के चलते थे, इनको 'ढोंगला', 'भिलाड़ी', 'त्रिशूलिया', 'नीटरिया', 'नायरा' आदि नामों से जाना जाता था। मेवाड़ के जागीरदारों में सलूम्बर, भिंडर और शाहपुरा की भी मुद्राएं देखी गई है। की तांबे की मुद्रा को 'पद्मशाही' कहते थे भिंडर की मुझे को 'भिंडरिया पैसा कहते थे शाहपुरा में भी सोने, चांदी तथा तांबे के सिक्के बनते थे जिन पर शाहआलम तथा अन्य हि अंकित रहते थे। यहां के सोने तथा चांदी के सिक्के को
'ग्यार सन्दा' और तांबे के सिक्के को माधोशाही' कहते थे। डूंगरपुर राज्य के सिक्के कर्नल निवसन का कहना है कि इस राज्य में टकसाल थी और चांदी का 'त्रिशुलिया' 'पत्रिसीरिया' सिक्का यहां बनता था। डूंगरपुर राज्य का कोई चांदी का सिक्का नहीं मिला है। यहाबाद के पुराने 'चित्तौड़ी' और प्रतापगढ़ के 'सालिमशाही' रुपयों का प्रचलन था। जो यहां चलते थे उनके भाव में काफी उतार-चढ़ाव आते रहते थे जिससे व्यापार में बड़ी हानि होती थी। राज्य से 1901 ई. में इस असुविधा को समाप्त करने को लिए अंग्रेजी सरकार से समझौता किया जिसके द्वारा 135 रु. चितौड़ी' और 200 रु. 'सालिमशाही' के बजाय 100 रु. कलदार देना निश्चित किया। तभी से राज्य में कलदार का प्रचलन आरम्भ हो गया।
प्रतापगढ़ राज्य के सिक्के अन्य राज्यों की भांति शाहआलम ने उसके नाम के सिक्के चलाने की आज्ञा महारावल सालिमसिंह को दी और ई. सं. 1784 से प्रतापगढ़ की टकसाल में चांदी के सिक्के बनने लगे। इस सिक्के को 'सालिमशाही' कहते थे जिसके एक तरफ 'सिक्कह मुबारक बादशाहा गाजी शाहआलम, 1199 और दूसरी और जब 25 जुलूस मैमनत मानूस' फारसी में अंकित होने लगा। इस पर सालिमसिंह का नाम न होकर शाहआलम का नाम है। इस सिक्के का प्रचलन डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर, झालावाड़, निम्बाहेडा, रतलाम, जावरा, सीतामऊ, ग्वालियर, मन्दसौर आदि में था। ई.सं. 1818 की संधि से शाहआलम का नाम निकालकर उसके स्थान पर सिक्का मुबारिकशाह लंदन, 1236 अंकित किया गया।
बांसवाड़ा राज्य के सिक्के इतना तो स्पष्ट है कि यहां तांबे के सिक्के अवश्य बनते थे जिनमें एक तरफ 'श्री' के नीचे 'रसायत बांसवाड़ा' संवत् और दूसरी तरफ रेखाओं एवं बिंदियों से बनी हुई हुंडी के चित्र दिखाई देते हैं। 1870 ई. में महारावल लक्ष्मण सिंह ने सोने, चांदी और तांबे के सिक्के बनवाना आरम्भ किया। इन सिक्कों को 'लक्ष्मणशाही' सिक्के कहते हैं। 1904 ई. में सालिमशाही एवं लक्ष्मणशाही सिक्के बन्द करवा दिये गये और उनके स्थान पर कलदार का प्रचलन हो गया।
मारवाड़ राज्य के सिक्के : 1565 में मुगलों का जोधपुर पर अधिकार हो जाने पर वहां मुगल बादशाह के सिक्के का प्रचलन हुआ। 1780 में जोधपुर नरेश विजयसिंह ने बादशाह से अनुमति लेकर अपने नाम से 'विजयशाही' चाँदी के रुपये चलाये। तब से ही जोधपुर व नागौर की टकसाल चालू हुई। 1781 में जोधपुर टकसाल में शुद्ध सोने की मोहर बनने लगी। जब राजस्थान में ब्रिटिश प्रभाव स्थापित हुआ तो उसका प्रभाव सिक्कों पर भी दिखाई दिया। मेवाड़ में स्वरूपशाही एवं मारवाड़ में आलमशाही सिक्के ब्रिटिश प्रभाव वाले थे। इनमें 'औरंग आराम हिंद एवं इंग्लिस्तान स्व विक्टोरिया' लिखा होता था। 1857 के विद्रोह के बाद वाले सिक्कों में श्रीमाताजी श्री महादेव अंकन वाले सिक्के शुरु हुए। प्रतापगढ़ रियासत में 'सिक्का मुबारक लन्दन' प्रचलन में आया। ये सिक्के 1761 से 1858 तक चलते रहे जिन पर फारसी लिपि में 'सिक्कह मुबारक बादशाह आलम' और दूसरी ओर 'मैमनत मानूस जर्व अलू, जोधपुर' लेख अंकित रहते थे। 1858 ई. से विक्टोरिया का नाम शाहआलम के स्थान में अंकित होने लगा। परन्तु सोजत की टकसाल से निकलने वाले 'लल्लूया रुपये' पर 1859 में भी शाहआलम का नाम चलता रहा। विजयशाही सिक्के सोने, चांदी और तांबे के बनते थे। तांबे के सिक्कों पर हिजरी सन् एवं 'दारूल मंसूर जोधपुर' तथा 'जुलूस मैमनत मानूस जर्व' अंकित रहते थे। इन पर झाड़ और तलवार के चिह्न भी बनते थे जिन्हें तुर्रा एवं खाँडा कहते थे।
राजस्थान का इतिहास, कला एवं संस्कृति एक सर्वेक्षण
जैसलमेर के सिक्के स्थानीय सिक्के के बनने के पहले जैसलमेर में चांदी का 'मुहम्मद शाही' सिक्का चलता था। 1756 से महारावल अखयसिंह ने अपनी टकसाल में 'अखयशाही' मुद्रा को बनवाया। जैसलमेर में तांबे का सिक्का 'डोडिया' कहलाता था जिसे 1660 ई. में प्रथम बार बनाया गया था। इसके ऊपर मेवाड़ी 'ढींगले' जैसे चिह्न रहते थे। अलवर राज्य के सिक्के: अलवर राज्य की टकसाल राजगढ़ में थी जहां 1772 से 1876 तक स्थानीय सिक्के
के तांबे के सिक्कों को 'रावशाही टक्का' कहते थे।
करौली राज्य के सिक्के : यहां सबसे प्रथम महाराजा माणकपाल ने 1780 ई. में चांदी और तांबे के सिक्के अपनी टकसाल में बनवाये। माणकपाल के उत्तराधिकारियों ने इसी शैली के सिक्के बनवाये परन्तु उनमें अपने नाम का अंकन नाम के प्रथम अक्षर 'म' (मदनपाल), (ज) जयसिंह, अ (अर्जुनपाल), में (भंवरपाल) से करवाया। 1906 से यहां अंग्रेजी सिक्के का चलन हो गया और स्थानीय सिक्कों का प्रचलन बंद हो गया।
भरतपुर राज्य के सिक्के : भरतपुर राज्य में दो टकसाल थे-डीग और भरतपुर। 1763 ई. में सूरजमल ने शा आलम के नाम के चांदी के सिक्कों का प्रचलन किया। डीग की टकसाल से महाराणा रणधीरसिंह ने चांदी का रुपया, अठन्नी ओर चवन्नी चलाई।
धौलपुर के सिक्के धौलपुर में 1804 ई. से टकसाल आरम्भ हुई जिससे रुपये और अठन्नियां बनाई गई। यहां से प्रचलित सिक्के को 'तमंचा शाही' कहते हैं क्योंकि उस पर तमंचे का चिह्न लगाया जाता था। इसका प्रचलन धौलपुर, ग्वालियर और पटियाला में था। कीर्तिसिंह ने 1806 ई. में अकबर द्वितीय के सिक्के इस शैली के चलाये।
सिरोही की मुद्राएं: यहां मेवाड़ का चांदी का 'भीलाड़ी' रुपया और मारवाड़ का तांबे का ढब्बूशाही' रुपया चलता था। 1903-04 ई. में अंग्रेजी सरकार में सिरोही राज्य को 15 लाख कलदार रुपयों तक 'भीलाड़ी' से परिवर्तित करने की स्वीकृति दी थी।
जयपुर राज्य के सिक्के: मुगल शासक अकबर के काल से निकट संबंध होने से सम्भवतः कछवाहों को अपने यहां टकसाल स्थापित करने की आज्ञा अन्य राजस्थानी राज्यों की तुलना में पहले मिली हो। इस राज्य को टकसालें आमेर, जयपुर, माधोपुर, रूपवास, सुरजगढ़ और चरम (खतड़ी) में होना प्रतीत होता है। रामसिंह और माधोसिंह तथा पिछले वर्तमानकालीन शासकों के स्वर्ण के सिक्के देखे गये हैं। रामसिंह की मुहर के एक और 'जर्व सवाई जयपुर सन् 1868 बाहदी मलिका मौजमा सल्तनत इंग्लिस्तान विक्टोरिया और दूसरी ओर 'सन् 31 जुलूस मेमनत मानुस महारावराज सवाई रामसिंह 'जी' अंकित था। इस पर भी छः टहनियों का झड़ रहता था और इसका तोल 167 ग्रेन होता था। यहाँ के स्थानीय सिक्कों के स्थान पर 'कलदार (चांदी) के सिक्के प्रचलन में आए, जिन्हें 'झाडशाही' कहा गया। यहाँ की मुद्रा को झाड़शाही कहते थे क्योंकि उसके ऊपर 6 टहनियों के झाड का चिह्न बना रहता था। महाराजा माधोसिंह और रामसिंह ने स्वर्ण सिक्के भी चलाये। माधोसिंह के रुपये को 'हाली' सिक्का कहते थे। खेतड़ी की टकसाल में चांदी और तांबे के सिक्के बनते थे। यहां की टकसाल को 1869 में बंद कर दिया गया। इस स्थानीय मुद्रा पर शाह आलम नाम बना रहता था। रियासतों के सिक्के
मेवाड़ के सिक्के : चित्तौड़ों, भिलाड़ी, उदयपुराँ, मुगलो सिक्का एलची, चांदौड़ी, स्वरूपशाही, ढोंगाल, शाहआलमी।
जोधपुर के सिक्के ३ विजयशाही, भीमशाही, गजशाही, लल्लूलिया।
जयपुर के झाड़शाही, मुहम्मदशाही, हाली सिक्के
बीकानेर के सिक्के = गजशाही।
जैसलमेर के सिक्के अशाही, मुहम्मदशाही, डोडिया
डूंगरपुर के सिक्के उदयशाही, त्रिशूलिया, पत्रीसीरिया, चित्तौड़ी, सालिमशाही।
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